फुर्सत गिरवी पड़ी हुई है।
जिम्मेदारियों के बाज़ार में।
और सभी को लगता है।
रौनक नही रही अब त्योहार में।
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सबको भाता है महंगा सामान।
कुछ सस्ता मत देना प्यार में।
सोचे सुदामा कैसे दे कृष्ण को।
मुठ्ठी भर रूखा पोहा उपहार में।
जीत ही जीत की चाह है बस।
लुफ्त कहां है अब हार में।
ख़ुद को ही ऊपर रखना है।
चाहे टूट ही जाय रिश्ता तकरार में।
अहम की चादर ताने सोते हैं।
जगाने की कोशिश मत करना बेकार में।
कभी तो तुम समझोगे मुझको।
इसी आस में खड़ी हूं अब तक इंतज़ार में।
प्रज्ञा पांडेय (मनु)वापी गुजरात