सोचती हूं व्यथित हो बार बार
कैसा था पैंतीस टुकड़ों वाला प्यार!
मारा काटा फेंक दिया
लेकर धार दार हथियार
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वो प्यार नही था
बस था जिस्मों से खिलवाड़
वो यार नही था ,
वो था एक दरिंदा खूंखार
कैसे ना उसको जान सकी
तुम क्यों न उसकी मंशा पहचान सकी
उसके खातिर क्यों छोड़ दिया था
तुमने मां बाप और परिवार
श्रद्धा तुम कट गई टुकड़ों में
काश की तुम वापस आ जाती एक बार
प्रज्ञा पांडेय वापी गुजरात