उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ कई गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे, जिनमें दंगे भड़काने, हत्या के प्रयास और धार्मिक भावनाओं को भड़काने जैसे आरोप शामिल थे। 1999 से लेकर 2007 तक के विभिन्न मामलों में उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए थे। उदाहरण के तौर पर, 1999 में महाराजगंज में धार्मिक स्थल को अपवित्र करने, 2006 में गोरखपुर में दंगे और हत्या के प्रयास के मामले, और 2007 में आगजनी से संबंधित मुकदमे शामिल हैं। 2014 के चुनावी हलफनामे में इन सभी मामलों का उल्लेख किया गया था। हालाँकि, मुख्यमंत्री बनने के बाद, योगी आदित्यनाथ ने अपने खिलाफ दर्ज इन मुकदमों को वापस ले लिया, जो यह प्रश्न उठाता है कि क्या एक राजनीतिक व्यक्ति अपने ऊपर लगे मुकदमों को सत्ता में आने के बाद कानूनी तरीके से खत्म कर सकता है।
क्या आरोप सिद्ध हो चुके थे?
इन सभी मुकदमों में से कई का निपटारा नहीं हुआ था, और अधिकांश मामलों में योगी आदित्यनाथ पर आरोप अभी तक सिद्ध नहीं हुए थे। इन मामलों में या तो क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी गई या फिर वे लंबित रहे। 1999 के मामले में, अदालत ने निर्णय स्थगित कर दिया, जबकि 2006 के गोरखपुर के दंगे के मामले में भी कोई ठोस परिणाम नहीं आया। यह स्थिति न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करती है, क्योंकि जब तक आरोप सिद्ध न हो जाएं, किसी भी आरोपी को निर्दोष या दोषी मानना न्याय की भावना के खिलाफ है।
मुख्यमंत्री बनने के बाद, योगी आदित्यनाथ ने कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल करके अपने ऊपर लगे सभी मामलों को खत्म करवा लिया। इस पर सवाल उठता है कि अगर आम नागरिकों के खिलाफ इस तरह के गंभीर आरोप होते तो क्या उन्हें भी यही राहत मिलती? न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार है, और इसे नजरअंदाज करके एक गलत उदाहरण स्थापित किया गया।
मंगेश यादव एनकाउंटर: न्यायिक प्रक्रिया की अवहेलना!
इसके विपरीत, मंगेश यादव पर चोरी और डकैती जैसे आरोप थे, लेकिन उन्हें अदालत में पेश करने के बजाय पुलिस ने उनका एनकाउंटर कर दिया। मंगेश यादव के परिवार का दावा है कि पुलिस ने उन्हें दो दिन पहले ही हिरासत में लिया था, और बाद में एनकाउंटर दिखाकर मार दिया गया। यह मामला कई सवाल खड़े करता है: जब तक यादव पर लगे आरोप न्यायालय में सिद्ध नहीं हुए थे, तब तक उन्हें बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के मौत के घाट उतारना किस हद तक सही था?
मंगेश यादव का मामला कानून और न्यायपालिका के दायरे से बाहर जाकर किया गया एक उदाहरण है, जहां आरोपी को अपने बचाव का मौका तक नहीं दिया गया। यह न्यायिक प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लंघन है, जो यह दर्शाता है कि किसी पर लगे आरोपों को सिद्ध किए बिना उसे सजा देना न केवल अवैध है, बल्कि लोकतांत्रिक और न्यायिक सिद्धांतों के खिलाफ भी है।
न्यायालय की भूमिका
यहां सवाल यह उठता है कि न्यायालय की क्या भूमिका होनी चाहिए थी? मंगेश यादव का मामला न्यायालय के संज्ञान में आना चाहिए था, ताकि उसकी सच्चाई और दोष सिद्ध होने की प्रक्रिया का पालन हो सके। न्यायालय का काम केवल कानूनी प्रक्रियाओं को पूरा करना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि किसी निर्दोष व्यक्ति के साथ अन्याय न हो। यादव के एनकाउंटर ने इस प्रक्रिया को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया, और यह न्याय व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है।
दूसरी ओर, योगी आदित्यनाथ के मामले में, अदालत ने कई सालों तक मुकदमे की सुनवाई की और फिर मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इससे यह साफ होता है कि न्यायिक प्रक्रिया में भी राजनीति का प्रभाव है, और यह न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है।
—- निष्कर्ष
योगी आदित्यनाथ पर लगे गंभीर आरोपों के बावजूद, उन्हें न्यायिक प्रक्रिया के तहत राहत मिल गई, जबकि मंगेश यादव को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के एनकाउंटर में मार दिया गया। यह स्थिति कानून व्यवस्था की निष्पक्षता और समानता पर गहरे सवाल खड़े करती है।
योगी सरकार पर आरोप लगते रहे हैं कि वह जाति और धर्म के आधार पर कानूनी कार्रवाइयां करती है। भाजपा से जुड़े नेताओं के खिलाफ कार्रवाई धीमी या नहीं होती, जबकि अन्य समुदायों के लोगों पर बुलडोजर और एनकाउंटर जैसे कठोर कदम उठाए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, अजय मिश्रा टेनी के बेटे द्वारा किसानों की हत्या का मामला हो या ब्रजभूषण सिंह पर लगे आरोप, इन मामलों में न्यायिक प्रक्रिया में देरी और पक्षपात देखा गया है।
मंगेश यादव का एनकाउंटर यह सवाल उठाता है कि क्या सरकार और पुलिस कानून और न्याय की निष्पक्षता का पालन कर रही हैं? न्यायिक प्रक्रिया को नजरअंदाज कर किसी आरोपी को सजा देना न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। ऐसे मामलों में अदालतों को स्वत: संज्ञान लेकर निष्पक्ष जांच और कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि किसी निर्दोष के साथ अन्याय न हो।
-रवीश कुमार ( लेखक)