हमसे तो श्रेष्ठ भिखारी है,
जिसके अंतस में अहम नहीं।
हम जाति- धर्म के पोषक हैं,
मानव पर करते रहम नहीं।
सतही प्रशस्ति के लिए नित्य,
नफरत की फसल उगाते हैं।
वह हमें दुआ नित देता है,
कपटी लम्पट बेरहम नहीं।
प्रभुता वैभव के लालच में,
हम नित दंगे करवाते हैं।
वह आहें भरता रहता है,
पर हम जैसा बेरहम नहीं।
धन-पुरस्कार के चक्कर में,
हमने जमीर को बेच दिया।
वह रहता फाकेमस्त मगर,
उसको भविष्य का भरम नहीं।
दुनिया में धन वैभव पाकर,
हम आत्म बोध खो बैठे हैं।
वह पास प्रकृति के रहता है,
क्षिति पर सोने में शरम नहीं।
