उत्तर प्रदेश के बहराइच में एक कथावाचक को ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ दिया जाना किसी एक प्रशासनिक भूल या स्थानीय अतिउत्साह का मामला नहीं है बल्कि यह उस राजनीतिक दिशा का संकेत है, जिसमें राज्य की शक्ति, वर्दी और राजकीय प्रतीकों को धीरे-धीरे धार्मिक वर्चस्व और सामाजिक पदानुक्रम के वैध उपकरण में बदला जा रहा है। यह प्रश्न अब कानून की व्याख्या का नहीं, बल्कि भारतीय राज्य के चरित्र का है।
‘गार्ड ऑफ ऑनर’ संविधान, राष्ट्र और संप्रभुता का प्रतीक है। यह सम्मान किसी व्यक्ति की आस्था, लोकप्रियता या धार्मिक भूमिका के लिए नहीं, बल्कि उसके संवैधानिक पद या असाधारण सार्वजनिक सेवा के लिए दिया जाता है। जब यह सम्मान किसी निजी धार्मिक कथावाचक को दिया जाता है, तो संदेश साफ़ है कि —राज्य नागरिकता को नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान को प्राथमिकता देने लगा है और यही संविधान और लोकतंत्र के क्षरण का पहला संकेत होता है।
बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा में स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा था कि “राजनीतिक लोकतंत्र तब तक टिक नहीं सकता, जब तक उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो।”
सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है—सम्मान, अधिकार और प्रतिष्ठा का आधार जन्म, जाति, क्षेत्र या धार्मिक भूमिका नहीं, बल्कि समान नागरिकता है। लेकिन बहराइच की घटना इस मूल सिद्धांत को चुनौती देती है।
संविधान का अनुच्छेद 14 समानता की नींव रखता है और अनुच्छेद 15 धर्म-आधारित भेदभाव को निषिद्ध करता है। लेकिन ज़ब राज्य स्वयं धार्मिक पहचान को सम्मान का आधार बना दे तो समानता एक संवैधानिक मूल्य नहीं,बल्कि कागजी घोषणा बनकर रह जाती है।
धर्मनिरपेक्षता को अक्सर केवल पूजा-पाठ की स्वतंत्रता तक सीमित कर दिया जाता है, जबकि उसका मूल अर्थ सत्ता और आस्था के बीच स्पष्ट दूरी है।
धर्मनिरपेक्षता के प्रखर समर्थक जवाहरलाल नेहरू ने लिखा था कि “धर्मनिरपेक्ष राज्य वह होता है जो किसी भी धर्म से पहचान नहीं जोड़ता बल्कि सभी धर्मों से समान दूरी रखता है।” लेकिन जब प्रशासन धार्मिक व्यक्तियों को राजकीय सम्मान देता है तो यह दूरी समाप्त हो जाती है और राज्य एक पक्षधर के रूप में खड़ा दिखाई देता है।
इसी संदर्भ में महात्मा गांधी ने चेताया था कि “राज्य और धर्म जब एक-दूसरे से मिल जाते हैं, तो धर्म भ्रष्ट होता है और राजनीति हिंसक।”
प्रशासन द्वारा धार्मिक व्यक्तियों को राजकीय सम्मान देना इसी खतरनाक गठजोड़ का संकेत है।
यह घटनाक्रम मनुस्मृति आधारित सामाजिक संरचना की याद दिलाता है, जहाँ सम्मान और अधिकार जन्म और धार्मिक पद से निर्धारित होते थे। उस व्यवस्था में ब्राह्मण पूजनीय था क्योंकि वह धार्मिक सत्ता का प्रतिनिधि था। आज जब कथावाचक को गॉर्ड ऑफ़ ऑनर मिलता है तो वही सोच आधुनिक वर्दी और सरकारी आदेश के साथ लौटी दिखाई देती है और यह मनुस्मृति की सामाजिक चेतना का प्रशासनिक पुनरुत्थान है।
डॉ आंबेडकर ने मनुस्मृति के संदर्भ में साफ कहा था कि यह ग्रंथ असमानता और दमन को धार्मिक वैधता देता है। इसी कारण उन्होंने संविधान को मनुस्मृति के विकल्प के रूप में स्थापित किया संविधान व्यक्ति को उसके जन्म या आस्था से नहीं, बल्कि नागरिक होने के नाते मान्यता देता है।
मनुस्मृति द्वारा स्थापित सामाजिक असमानता, जातीय श्रेष्ठता और दमन के सबसे प्रखर आलोचक पेरियार ई.वी. रामास्वामी थे और उन्होंने स्पष्ट कहा था कि “जो धर्म सवाल पूछने से रोके और बराबरी से डराए, वह धर्म नहीं, दमन की व्यवस्था है।”
जब राज्य धार्मिक पदों को सम्मानित करता है, तो वह अनजाने में उसी दमनकारी सामाजिक व्यवस्था को वैधता देता है।
भारतीय राजनीतिक चिंतक और समाजवाद के प्रखर समर्थक डॉ राम मनोहर लोहिया ने चेताया था कि– “यदि सत्ता सामाजिक असमानता के साथ समझौता कर ले, तो लोकतंत्र केवल नाम का रह जाता है।” लेकिन बहराइच की घटना बताती है कि सत्ता अब असमानता और धार्मिक वर्चस्व से समझौता नहीं, बल्कि उसे सम्मानित करने लगी है।
उदार लोकतंत्र के बड़े चिंतक जॉन स्टुअर्ट मिल ने चेतावनी दी थी कि “लोकतंत्र का सबसे बड़ा खतरा यह है कि बहुसंख्यक अपनी नैतिकता को राज्य की नैतिकता बना दे।”
धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य-सम्मान देना इसी बहुसंख्यक नैतिकता को संवैधानिक मूल्यों के ऊपर बैठाने का प्रयास है।
आधुनिक न्याय सिद्धांत के प्रमुख विचारक जॉन रॉल्स ने न्याय को परिभाषित करते हुए कहा था कि “न्यायपूर्ण समाज वह है, जहाँ राज्य किसी भी व्यक्ति को उसकी सामाजिक या नैतिक स्थिति के कारण विशेष लाभ न दे।” लेकिन गार्ड ऑफ ऑनर जैसी राजकीय मान्यता यदि धार्मिक भूमिका के आधार पर दी जाती है, तो वह रॉल्स के न्याय सिद्धांत के ठीक उलट खड़ी दिखाई देती है।
सबसे गंभीर प्रश्न प्रशासन से अधिक राजनीति से है। क्या राज्य नागरिकों के बीच बराबरी का संरक्षक रहेगा या धार्मिक पदों का सम्मान-वितरक बन जाएगा? क्या पुलिस और प्रशासन संविधान के प्रति जवाबदेह रहेंगे या आस्था-आधारित सत्ता समीकरणों के प्रति?
यदि आज कथावाचक को गार्ड ऑफ ऑनर मिलता है, तो कल धार्मिक पहचान ही राजकीय योग्यता का प्रमाण बन जाएगी। यही वह क्षण होता है, जब लोकतंत्र औपचारिक रूप से जीवित रहता है, लेकिन व्यवहार में समाप्त हो जाता है।
भारत किसी कथावाचक, धर्मगुरु या धार्मिक मंच से नहीं चलेगा। भारत तभी बचेगा जब राज्य की वर्दी संविधान के सामने झुकी रहे, न कि आस्था के सामने।
आज यह केवल कहने का नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से तय करने का समय है कि भारत मनुस्मृति से नहीं, बल्कि संविधान से चलेगा– या फिर संविधान को केवल समारोहों और प्रस्तावनाओं तक सीमित कर दिया जाएगा।
— लेखक: महेंद्र कुमार यादव
(शोधछात्र,राजनीति शास्त्र विभाग,लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ)











