आज फूलन देवी का शहादत दिवस है। उन्हें याद करना सिर्फ एक इंसान को श्रद्धांजलि देना नहीं है, बल्कि उस फटेहाल व्यवस्था पर उंगली उठाना है, जिसने उसे जन्म दिया, सताया, बदनाम किया और अंत में मौत दे दी। फूलन देवी का नाम लेते ही समाज की वो परतें उघड़ जाती हैं जिन्हें हम अक्सर सभ्यता की चादर से ढंक देते हैं मगर बदबू कभी छुपती नहीं।
फूलन एक गरीब नाविक जाति की लड़की थी। ग्यारह साल की उम्र में ब्याह दी गई एक अधेड़ उम्र के आदमी से, जो न सिर्फ उसके शरीर को नोचता रहा, बल्कि उसके बचपन, उसके सपनों और उसकी आत्मा को भी रोज़-रोज़ कुचलता रहा। जब फूलन ने वो नरक छोड़ा और मायके लौटी, तो गांव ने उसका तिरस्कार किया। पंचायतों ने उसकी देह पर फैसले सुनाए। ठाकुरों ने खुलेआम उसकी अस्मत लूटी, और समाज ने उसकी चीख पर कान बंद कर लिए।
जिसने अत्याचार किया, वो समाज का ‘सम्मानित’ था। जिसने विरोध किया, वो ‘डकैत’ बना दी गई।
वो बार-बार थाने गई, अदालत गई, पंचायत में खड़ी हुई पर हर जगह उसके सवालों का जवाब एक ही था: “तू है कौन?”
थाने में दरोगा ने हंसते हुए कहा, “जा यहां से, तेरी औकात नहीं है।”
और समाज ने मुंह फेर लिया क्योंकि वह एक गरीब, पिछड़ी जाति की औरत थी। ये तीनों बातें इस देश में इंसाफ से बाहर की श्रेणी में आती हैं।
जब इंसाफ़ के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, तो इंसान बदला लेना नहीं चाहता वह सिर्फ ज़िंदा रहना चाहता है। लेकिन ज़िंदा रहने की इजाजत भी फूलन को नहीं दी गई। मजबूर होकर उसने बंदूक उठाई। उसके हाथ में बंदूक आई नहीं थी, उसे सिस्टम ने सौंप दी थी।
1981 का बेहमई कांड भारत के कानूनी इतिहास में एक दाग है,
लेकिन उससे पहले जो फूलन के साथ हुआ, वो क्या था? वो सिर्फ एक लड़की की अस्मत लुटने की कहानी नहीं थी, वो सत्ता, जात और पितृसत्ता के मिले-जुले बलात्कार का दस्तावेज़ था। फूलन का गुस्सा नहीं, उसका जवाब था।
समाज ने उसे ‘बागी’ कहा, लेकिन उसी समाज ने तब आंखें बंद कर ली थीं जब फूलन की चीखें हवाओं में गूंज रही थीं। आज भी जो लोग फूलन को ‘डकैत’ कहकर निंदा करते हैं, वो असल में उस व्यवस्था को बचाने की कोशिश कर रहे हैं जिसने फूलन को हर मोड़ पर मारा।
लेकिन फूलन सिर्फ बदला लेकर रुकी नहीं उसने आत्मसमर्पण किया, जेल की यातना झेली, और जब बाहर आई, तो राजनीति को अपना रास्ता बनाया। वो सांसद बनीं, संसद में वो आवाज़ बनीं जिन्हें हमेशा खामोश रहने की हिदायत दी जाती रही।
पर यही बात व्यवस्था को नागवार गुज़री। एक दिन की डकैत, अगर संसद की मेज तक पहुंच जाए तो वो मिसाल बन जाती है, और मिसालें सत्ताओं को डरा देती हैं।
लेकिन सिस्टम के मुर्गों को ये मंजूर नही था।
25 जुलाई 2001 दिल्ली की एक सड़क पर फूलन देवी को गोलियों से भून दिया गया। जो फूलन कभी जंगल की धूल में बगावत बोती थी, उसे राजधानी के दरवाज़े पर खामोश कर दिया गया। क्योंकि अब फूलन एक ‘नाम’ नहीं, एक ‘सवाल’ बन चुकी थी। और इस देश में सवाल पूछने वालों को मार दिया जाता है।
आज जब हम फूलन को याद करते हैं, तो यह पूछना भी ज़रूरी है अगर उसे वक्त रहते इंसाफ़ मिल जाता, तो क्या वो बंदूक उठाती? क्या उसे बागी बनना पड़ता?
फूलन देवी कोई अपराधी नहीं थी वो इस देश के उस सिस्टम का आईना थी, जिसे देखने से हम डरते हैं। जब कानून की चक्की सिर्फ अमीरों के लिए घूमती है, जब अदालतें साक्ष्य नहीं जात पूछती हैं, और जब औरत होना सबसे बड़ा गुनाह बना दिया जाता है तब फूलन जैसी बेटियाँ बंदूक नहीं उठातीं, वो बस अपनी जान बचाती हैं।
आज फूलन को याद करने का मतलब है उस व्यवस्था से सवाल करना जो आज भी हजारों लड़कियों को फूलन बनने पर मजबूर कर रही है।
क्योंकि जब इंसाफ़ सिर्फ महलों तक सीमित हो जाए, तो झोपड़ियों से फूलन देवी निकलती हैं।
और याद रखिए …
“फूलन देवी मारी नहीं गई थीं, उन्हें सिस्टम ने खामोश कराया था।
उन्होंने बदला नहीं लिया था, उन्होंने हिसाब बराबर किया था।
उनकी लड़ाई आज भी जिंदा है।
जात ,जुल्म ,शोषण, अन्याय और व्यवस्था की चुप्पी के खिलाफ़ खड़ी एक सबसे बुलन्द आवाज़ को नमन।
(लेखक- रवीश कुमार यादव)