भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने एक दीर्घकालिक, योजनाबद्ध और विचारधारात्मक घुसपैठ के ज़रिए अपना गहरा प्रभाव स्थापित कर लिया है। वह न केवल शिक्षा, प्रशासन, बल्कि मीडिया और सुरक्षा तंत्र तक में प्रभावी पदों पर पहुँच चुका है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इन्होंने लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण संस्था पर भी कब्जा किया है, जिसका नाम लेना कोर्ट की अवमानना माना जाएगा।
इन संस्थानों की नीतियाँ ही देश की दिशा और दशा तय करती हैं और आज यह स्पष्ट दिख रहा है कि यह दिशा विचारधारात्मक रूप से एकतरफा होती जा रही है।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि आरएसएस के लोग पहले भी संस्थानों में मौजूद थे, लेकिन संख्या सीमित थी। आज उनकी संख्या और पहुँच दोनों ही बढ़ चुकी हैं। वे नौकरशाही, शिक्षण संस्थानों और अन्य निर्णयकारी ढाँचों में इतने गहरे तक समाहित हो चुके हैं कि अब उन्हें हटाना एक असंभव कार्य प्रतीत होता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत का बहुसंख्यक समाज—विशेषकर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक—अब भी शिक्षा और रोजगार की बजाय आस्था के जाल में उलझा हुआ है। जब तक वह चेतनाशील नहीं होगा, तब तक वह सत्ता-प्रतिष्ठानों में अपने हितों की पहचान और रक्षा नहीं कर पाएगा।
लेकिन इसका जिम्मेदार केवल आरएसएस नहीं है। इसकी सबसे बड़ी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी कांग्रेस पार्टी पर आती है। कांग्रेस ने आरएसएस को या तो कमज़ोर समझा या फिर सत्ता की मजबूरी में उसे बढ़ावा दिया। कई बार आरएसएस के विचारकों और संस्थाओं को कांग्रेस सरकारों ने संरक्षण दिया। जब तक कांग्रेस खुद सेक्युलरिज़्म के साथ दुविधा में रही, तब तक आरएसएस को पनपने का अवसर मिला।
सोनिया गांधी के आगमन के बाद जब कांग्रेस ने पुनः धर्मनिरपेक्षता की ओर स्पष्ट रुख अपनाया, तब तक आरएसएस पूरी तरह भाजपा की ओर झुक चुका था और संस्थानों में खुद को स्थापित कर चुका था।
अब इस सत्ता को संतुलित करने का एकमात्र उपाय है।जनचेतना, शिक्षा, और रोजगार की क्रांति, ताकि आस्था के पर्दे हटें और लोकतंत्र सही मायनों में सबके लिए कार्य करे।
– रवीश कुमार यादव(लेखक)