आज जिस तरह नवरात्रि में नवदुर्गा के विभिन्न स्वरूपों को 9 दिनों के लिए हरेक नगर, गाँव, मोहल्ले, कस्बे आदि हजारो स्थानों पर प्राणप्रतिष्ठित करने का उत्साह दिखाई देता है, उसे हम सृष्टि का संचालन करने वाली जगन्माता के प्रति अपनी भक्ति का स्वरूप ओर माता के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शन के साथ अभिवांछित विषयों की सिद्धि अर्थात भौतिक कल्याण की प्राप्ति के साथ जोड़ते है यह प्रसन्नता की बात है किन्तु वृहदस्तर पर समूचे देश के करोड़ों भक्तों की यह आराधना कही फलित होते नहीं दिखती । जगजननी माँ के जिस स्वरूप का जो मूल स्वरूप है जिसमे उनके द्वारा धारण किए जाने वाले शस्त्र, उनकी सवारी, सिंह, असुर, भैसा आदि के साथ उनके आभूषण, उनकी भुजाए, भुजाओं में जिस हाथ में जो शस्त्र हो,उसमें शस्त्र ओर जिसमें शंखपुष्प हो उसमें वही धारण कराने की चूक भी आराधक के लिए अमंगलकारी हो जाती है जो सामान्य चूक में हम विस्मृत करते है वह गंभीर चूक अहितकर होती है। ब्रम्हपुराण ने देवी की आराधना में अर्ध, नैवेद्य एवं पूजा के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले पात्रों- बर्तनों का उल्लेख करते हुये लिखा है कि वे सुवर्ण, रजत, ताम्र, काष्ठ, मृत्तिका, प्रस्तर, रत्न प्रभूति से निर्मित हो ओर उसमें मांगलिक तथा शुभप्रद रेखाएं अंकित कि गयी है, जबकि हम इसके विपरीत स्टील के बर्तनों का प्रयोग देखते है जो हमारी आराधना में हमारी भक्ति की पुकार जगत माता तक भेजने में सफल नहीं हो पाते।
हर साल हमारे सभी आराध्यों के साथ श्रीराम, श्रीकृष्ण, गणेश काली, दुर्गा भक्ति चरम पर होने के बाद भी हमारे कष्ट दूर होने की जगह बढ़ते जा रहे है, आखिर क्यों? कुछ तो कारण है जिन्हे सभी धर्माचार्यों को संज्ञान में लेना चाहिए, कही धर्म परंपरा के निर्वहन में इसी तरह की कोई चूक तो नहीं जो हमारे कष्टों के निवारण के बजाय हमें हर बार कष्ट ओर समस्या के बढ़ा रहे हो, हमारे पूर्वज राजाओं की इन बातों पर दृष्टि रही है ओर वे इसके समाधान के कारण तलाशकर अपनी प्रजा का हित संवर्धन में जुट जाते थे पर आज के दौर में सरकारें है वे बधिया बैल या सांड की तरह हो गई जो प्रजाहितों के विपरीत निजी तौर पर प्रजा को भारवाहक बनाकर न उनको काम देना चाहती है ओर न ही उनका घर बसाना चाहती है, जबकि उनकी धारणा खुद के दायरे में कुछेक को समेट कर उनकी जरूरतों को पूरा कर उन्हे अपने वर्तुल में मानसिक दिवालियापन बनाने की है। ऐसे में प्रजा राजा के बजाय भगवान भरोसे हो गई ओर भक्ति शक्ति में देवी-देवताओं की शरण में पहुँच गई किन्तु वहाँ भी वह अज्ञानतावश मझदार में है ओर उनका पुरुषार्थ सरकारों के प्रति अपने अधिकारों के लिए बगावत करने की बजाय देवी शक्ति से अपने मनोरथ पूरा कराना है जो आधे अधूरे ज्ञान- भक्ति से संभव होता नहीं दिखा ।
मनोरथ पूरे कैसे हो? हमने मनोरथ पूरा करने के लिए देवी को अपने नियंत्रण में लाने का सरल मार्ग के रूप में 9 दिनों की नवरात्रि के व्रत पूजा भक्ति को अपना लिया है ओर जगह जगह देवी के विभिन्न स्वरूपों को प्राण प्रतिष्ठित कर उनकी आराधना शुरू कर दी। मत्स्य पुराण में मातृ चक्र में वर्णित माताओं के स्वरूपों में ब्रह्मचारिणी, शैलपुत्री, सिद्धिदात्री, चंद्रघंटा,महागौरी, कात्यायनी, कालरात्रि, कुष्मांडा एवं स्कन्दमाता सहित सर्वमंगला, चंडी ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी,वैष्णवी,वाराही, इंद्राणी, योगेश्वरी, चामुंडा, शिवा, कालिका, दुर्गा, काली, ,छिन्नमस्तिका आदि अनेक विभिन्न दिव्य स्वरूपो के दिव्यता ने हमे उनकी उपासना के लिए प्रेरित किया ओर हम उनका आह्वान कर जाग गए पर यह विडंबना ही कहेंगे कि मनुष्य होने के नाते हमारे अंदर की दिव्यता से हम परिचित न हो सके कि प्रकृति का एक रूप दयालु है तो दूसरे रूप में निर्मम है, जो हम मनुष्यों के भीतर भी छुपा हुआ है। दयालु रूप माता का है, जो उदारता का प्रतीक ज्ञान, समृद्धि,शक्ति देने के साथ जगत की रचना में जन्मदात्री माता बन अपनी संतान का पालन करती है तो वही शक्ति के रूप में अभय प्रदान कर सभी विघ्नों को दूर करती है तब देश में शक्ति आराधना के इस पर्व में करोड़ो लोग एक साथ साधनारत रहकर देश,समाज ओर घरों में सुख शांति, वैभव से वंचित क्यो है?
2 बार नवरात्रि का पर्व चैत्र ओर शारदीय दुर्गा पूजा कि विधि को हम एक साल में पूर्ण श्रद्धा ओर भक्ति से मनाते है ओर कुछ भक्त गुप्त नवरात्रि के प्रति भी अपनी भक्ति को जारी रखते है। हम अपने आराध्य देव या देवी के प्रति भक्ति कर शक्ति प्राप्त करे यह सहज ओर सरल युक्ति है किंतु हमारी युक्ति में त्रुटिया समाविष्ट हो जाये तो निश्चित रूप से इसके भयाभय परिणाम भी आएंगे, भले हमारे चर्मचक्षु इसे न देख पाये। तो क्यों न हम राजमार्ग के अनुसरण में जाने अनजाने होने वाली इन त्रुटियों कि ओर भी अपनी दृष्टि डाले ताकि इसकी पुनरावृत्ति से बचकर हम सन्मार्ग पर अपनी भक्ति का पुण्य फल प्राप्त कर सके । यह विचारणीय है कि जब भी कोई व्यक्ति अपने-परिवार के लिए सुख शांति ओर वैभव की संकल्पना को ध्यान में रखकर अपना आवास बनाता है तो वह सबसे पहले उचित स्थान का चयन करेगा, चयनित स्थान की सभी दिशाओं के वास्तु दोषों को देखेगा ओर दोष होने पर उनके निवारण आदि सभी महत्वपूर्ण बातों को विशेषज्ञों से जांच परख कर उचित मार्गदर्शन में ही निज निवास की नीव डालने से भवन के आकार को सम्पूर्णता प्रदान करेगा। जब वह खुद के लिए इतने सारी प्रक्रियाओं से एकाकार होता है तब प्रश्न उठता है कि वही व्यक्ति नवदुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की भक्ति करते समय उन्हें 9 दिन के लिए स्थापित करने से पूर्व इन सारी बातों के लिए अपनी आंखें क्यों बंद कर लेता है की हमे भी माता के लिए उचित स्थान, उचित दिशा, उचित मंडप, उचित तोरण द्वार आदि वास्तुशास्त्र के दिशा निर्देश से बनाकर माँ को आमंत्रित कर स्थापित करना चाहिए ताकि पूजा हेतु स्थापित स्वरूप आपको यश, प्रतिष्ठा, सौन्दर्य, वैभव आदि सभी सहज ओर सरलता से भक्ति के बदले दिला दे ओर भक्ति की बयार से देश,प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति की दिशा ओर दशा परिवर्तित हो जाये। परंतु ऐसा दिखता नहीं जिसका कारण है जिन पंडित-पुजारियों को धर्म ज्ञान का संचार कर उचित मार्गदर्शन करना होता है वे भी पूजा पाठ की दक्षिणा के आगे खामोश हो जाते है ओर उन की चतुराई अपने पांडित्य को धर्मानुष्ठान से सिद्ध कर दुर्गोत्सव पद्धति में धर्मशास्त्रीय व्यवस्था को चौपट कर जिस भक्ति भाव से माता के हृदय में अपनी भक्ति की पुकार पहुंचाने के लिए आरती,प्रार्थना के स्वरों में “”मात भारत को जल्द से बलवान कर जिससे सुखी हो सारे नारी ओर नर”” दास कवि के भावों का आर्तनाद किया जाता है वह इन चूकों के रहते निष्फल ही है ओर भक्ति में लगे हम लोग भक्ति के स्थायित्व के स्थान पर कलुषित विचारों से मुक्त नहीं हो पाते है।
दुर्गा भक्ति तरंगिणी में प्रोफेसर पंडित काशीनाथ जी मिश्र देवी के इन विभिन्न स्वरूपों के लिए बनने वाले पूजा मंडपों के वास्तविक आकार, प्रकार की प्राथमिकता से विसर्जन तक की वैदिक धर्मानुगत विधि को शामिल करते है जिसमे शुरुआत स्वच्छ एवं उत्कृष्ट स्थान में ईशान कोण अथवा पूर्व दिशा में सभी विशेषताओं से समन्वित एवं मन को प्रिय लगने वाले देवी मंडप का वैदिक पद्धति से निर्माण करते समय देवी की प्रतिमा के विस्तार एवं ऊंचाई के अनुपात में तोरण की रचना की जाकर एक हाथ के बराबर भूमि नीचे रखकर चार हाथ की ऊंचाई के बराबर का भाग भूमि के ऊपर रखते हुये अन्य नियोजन कर प्रवेशद्वार चंद्रमा के प्रकाश कि तरह रश्मि जाल से पूर्णता पर थमते है जहां देवी के स्वरूप का सौंदर्य ओर लावण्यता अवर्णनीय दिखे । वास्तु के आधार पर स्थान के दोषों के अलावा जिस स्थान पर देवी की 9 दिवसीय स्थापना हो उस स्थान पर पताका फहराने के लिए वक्र वंश दंड के अपेक्षा सीधे सरल आकार के वंशज दंड में अगर पताका दो हाथ लंबी हो तो उसकी ऊंचाई आठ हाथ के बराबर हो जिसे सप्तशती के सर्वकालिक मंत्रो के पाठ से उत्तोलित कर लगाने का विधान है ताकि पूजा के हर अवसर पर यह पताका भक्त को विजय प्राप्ति में वरदान साबित हो सके।
देवी भागवत पुराण में प्रतिमा स्थापना को लेकर कहा गया है कि जहा देवी प्रतिमा का निर्माण हो वहाँ नवरात्रि के पूर्व कि अष्टमी तिथि को लकड़ी के नौ मंगलमय मंडप अथवा वित्तीय स्थिति के अनुसार एक मंडप बनाकर उसमें प्रतिमा का निर्माण शुरू किया जाये तथा प्रतिमा के करकमलों में धारण किए जाने वाले अस्त्रशस्त्र, रत्न एवं पहनाये जाने वाले वस्त्रों-आभूषणों की फल प्रभूति से पूजन सम्पादन कार्य किया जाना चाहिए , ऐसा किए जाने पर शक्तिस्वरूपा दुर्गा देवी राज्य, आयु, पुत्र सौम्य प्रदान करती है।

इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए की देवी के जिस स्वरूप की स्थापना करने जा रहे है, उनके मूल स्वरूप, उनकी भुजाओ में जिस हाथ में जो दाहिनी ओर त्रिशूल, तलवार, चक्र धनुषबाण चक्र के साथ अन्य अस्त्रशस्त्र का ठीक ठीक विन्यास हो तथा बाहीं भुजा-हाथों में पुष्प चक्र, खेटक, पाश, अंकुश, घंटा, चाप, परशु, आदि धारण किए जाने चाहिए। पुजोपचार की त्रुटियों को पूजा का अवसर पर भले ही मंत्रों के माध्यम से क्षमा मांग ले ओर माँ अपनी दयालुता के कारण आपको क्षमा भी कर दे परंतु उनके स्वरूपो की छेड़छाड़ उन्हे वर्दास्त नहीं है, जिसे स्वरूप दिये जाने हेतु मूर्तिकार के समक्ष अपनी मनमर्जी से आकार दिलवाना ही अनुचित ओर वैदिक विधान के अनुरूप अनुचित कृत्य ही है जो आपकी आराधना में, आपके अनुष्ठान में आप उसे मंगलाचार समझे किन्तु वह भगवती देवी के लिए आक्षेप वचन (गाली) होगा जिसके लिए देवी माँ क्रुद्ध होकर श्रापित करती है न कि कृपा करती है इसलिए इनसे बचने के लिए उन्हे जहा वे पूर्व से प्राणप्रतिष्ठित है, उन मंदिरों में उनके उसी रूप में पूजा- आराधना करना बेहतर है। जो शक्ति कि भक्ति के लिए देवी माँ की वर्ष में आने वाली दोनों नवरात्रि ओर गुप्त नवरात्रि पर उनके वास्तविक स्वरूप को विधि विधान से पूजा भक्ति करता है तो उस भक्त पर माँ प्रसन्न रहकर वरदानों-आशीर्वादों की बरसात कर उनका जीवन आनंद से पूर्ण कर सभी प्रकार के विघ्नों का नाश करती है ओर जो अपनी संतुष्टि के लिए यथाविधि रीति से उनके स्वरूपों के विपरीत स्वरूप में दर्शन कर भक्ति करने की चूक करता है वह अनर्थ को आमंत्रित करता है, जिससे सभी को बचना चाहिए ताकि धर्म स्थापना के साथ हम देवी माँ की अनन्य कृपा प्राप्त कर सके।












