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क्या ग्रहो का सम्बन्ध अवतारों से है और क्या इन अवतारों का सम्बन्ध डार्विन के विकासवाद से है – जानते है वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल से 

TvBharatbyTvBharat
October 14, 2022
October 14, 2022
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क्या ग्रहो का सम्बन्ध अवतारों से है और क्या इन अवतारों का सम्बन्ध डार्विन के विकासवाद से है – जानते है वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल से 

सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल, कोलकाता

 

भगवान विष्णु के दस अवतारों में ग्रहों का मेल है, जिससे हम ग्रहों को प्रसन्न भी कर सकते हैं। ज्योतिष के महान ग्रन्थ , बृहत पाराशर होरा शास्त्र में उपयोग की जाने वाली मुख्य विधि है।

 

भगवन विष्णु क्यों अवतार लेते रहे –

भगवान विष्णु अपने करुणा की शक्ति से प्राणियों की आत्माओं का मार्ग दर्शन करने के लिए स्वेच्छा से ग्रहों के माध्यम से जन्म लेते हैं। , सभी जन्म, दिव्य ग्रहों की किरणों के माध्यम से होते हैं। एक रोचक बात ये है की जब सौर मंडल समाप्त हो जाता है, तो प्राणियों की आत्माएं ग्रहो में विलीन हो जाती हैं, और ये विष्णु में विलीन हो जाती हैं।

 

मत्स्य-मछली 

 

केतु का संबंध भगवान विष्णु के मछली अवतार से है। बाढ़ के बाद पृथ्वी पर सृष्टि का एक नया चक्र शुरू होता है। केतु विनाश से संबंधित है जो एक नई रचना की प्रस्तावना है।मत्स्य अवतार की पूजा करने से हमें एक नई रचनात्मक शक्ति मिलती है और हमें अपने जीवन को ईश्वर की ओर ले जाने के लिए एक ताजा और उच्च कर्म खोजने की अनुमति मिलती है, जो हमारी केतु ऊर्जा को रूपांतरित और उत्थान करती है।

 

कूर्म-कछुआ

 

शनि का संबंध भगवान विष्णु के कछुआ अवतार से है। यह दिशाओं का महान कछुआ है जो ब्रह्मांड को अपनी पीठ पर बिठाता है। शनि एक मजबूत और कठोर ग्रह है, जो जीवन में एक महान समर्थन के रूप में कार्य करता है यदि हम इसकी ऊर्जा का उपयोग करना जानते हैं। इस अवतार की पूजा करने से हमें पूरे ब्रह्मांड की मूलभूत शक्तियों की शक्ति और समर्थन मिलता है, जो हमारी शनि ऊर्जा को परिवर्तित और विकसित करता है।

 

वराह-बोअरी

 

भगवान विष्णु के वराह अवतार का संबंध राहु से है। सूअर पृथ्वी को बचाता है और उसे ब्रह्मांडीय दलदल से बाहर निकालता है। राहु अपने उच्च रूप में देवी दुर्गा, उसके अधिपति और भगवान विष्णु के वराह अवतार द्वारा प्रकट की गई एक बचत और मुक्ति ऊर्जा है। वराह अवतार की पूजा करने से हमें दलदली भूमि पर विजय प्राप्त करने की अनुमति मिलती है। अज्ञानता और नकारात्मक ऊर्जा में,

हमारी राहु ऊर्जा को बदलना और उत्थान करना।

 

नरसिंह-मनुष्य-शेर

 

नर-शेर साहस, शक्ति और इच्छा-शक्ति के प्रतीक के रूप में मंगल से संबंधित है। नरसिंह अज्ञान और बुराई की ताकतों को दूर करने के लिए आवश्यक दैवीय क्रोध दिखाते हैं। नरसिंह अवतार की पूजा करने से हमें अपने क्रोध को दिव्य धार्मिकता और धर्म की सुरक्षा में बदलने में मदद मिलती है, हमारी मंगल ऊर्जा को बदलने और ऊपर उठाने में मदद मिलती है। ये अवतार बृहस्पति की शक्ति को व्यवस्थित करने और हमारी व्यक्तिगत बृहस्पति ऊर्जा को रूपांतरित और उत्थान में सहायक है ।

 

राम

राम धर्म राजा हैं और समाज में धर्म के ब्रह्मांडीय आदेश के प्रतिनिधि। उनका संबंध सूर्य के साथ है। राम की पूजा करने से हमें अपने जीवन में सौर प्रकाश को सत्य, धार्मिकता और करुणा की शक्ति बढ़ाने में मदद मिलती है, और हमें अपनी सौर ऊर्जा को रूप बदलने और उत्थान करने में मदद मिलती है।सूर्य के लिए राम को साधे।

 

कृष्णा

 

कृष्ण चंद्रमा से सुंदरता, प्रसन्नता के महान ग्रह के रूप में संबंध रखते हैं। प्रेम और भक्ति, वे लीलाएँ जिनके लिए कृष्ण प्रसिद्ध हैं। चंद्र वंशी कृष्ण चंद्रमा की तरह, बहुत लोकप्रियता और जनता को स्थानांतरित करने की क्षमता लिए है। कृष्ण की पूजा करने से हमें अपनी चंद्र शक्ति को ईश्वरीय भक्ति और आनंद में बदलने और ऊपर उठाने में मदद मिलती है।

 

बुद्ध

 

बुद्ध की आराधना करने से हम बुध ग्रह की उच्च रीढ़ की हड्डी की शक्ति और ध्यानपूर्ण अंतर्दृष्टि के संपर्क में आते हैं, जिससे हमें अपनी बुध ऊर्जा को बदलने और ऊपर उठाने में मदद मिलती है।

 

कल्कि

 

दसवें अवतार के रूप में कल्कि संयुक्त सभी नौ ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं।उनकी पूजा करने से हमें सभी नौ ग्रहों को आंतरिक परिवर्तन और उत्थान के लिए सकारात्मक तरीके से सक्रिय करने में मदद मिल सकती है।

 

प्रथम महायुग में मत्स्य, कूर्म और वराह अवतार हुए। इसे सत्ययुग या कृतयुग कहा जाता है। त्रेता युग में नृसिंह और वामन अवतार हुए। इसी में भगवान राम हुए और अंशावतार के रूप में परशुराम हुए। कृष्ण और बलराम द्वापर युग में आए। भागवत पुराण के अनुसार कलियुग के अंत में भगवान कल्कि का अवतार होना है। डार्विन ने जो विकासवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार सभी जीवों की उत्पत्ति पहले एक कोषीय, फिर द्विकोषीय से होती-होती, बहुकोषीय जीवों के रूप में हुई है और आधुनिक काल में जितने भी जीव हैं, वे उन्हीं से विकसित हुए हैं। भारतीय ऋषियों ने जो विवरण दिए हैं, उसके अनुसार डार्विन के सिद्धान्त से बहुत पहले ही जीव विकास क्रम को अवतारों के विकासक्रम के रूप में खोजा जा सकता है। जब पृथ्वी पर कभी मछलियों का ही राज रहा होगा, उस समय भगवान ने मत्स्य अवतार के रूप में जन्म लिया। जब समुद्री जीवों का कुछ और विकास हुआ होगा तथा वे स्थल पर चलने लगे होंगे, जैसे कि कछुआ, तो भगवान कूर्म अवतार के रूप में प्रकट हुए। जीवों का विकासक्रम कुछ आगे बढ़ा होगा और समुद्री जीव निकलकर पृथ्वी पर स्वतंत्र विचरण करने लगे होंगे और उनकी बहुत सारी जातियाँ उत्पन्न हो गई होंगी, तब भगवान ने वराहअवतार लिया होगा। मगरमच्छ, गिरगिट, छोटे से लेकर बड़ी छिपकलियाँ तथा सम्भवतः डायनोसोर का राज जब पृथ्वी पर चल रहा होगा, तब भगवान विष्णु ने उनके अनुरूप ही वराह अवतार लिया होगा। इस समय पृथ्वी पर अण्डे के रूप में और शरीर सहित जन्म लेने वाले जीव पृथ्वी पर आ चुके थे। जीव जगत के विकासक्रम में अगली पीढ़ी उन जीवों की थी जो बिल्ली से लेकर शेर तथा वानर, अन्य जीव -जन्तु, पृथ्वी पर आ चुके थे। उनकी आबादी बहुत अधिक हो गई थी और चौपायों दो पायों का अस्तित्व पृथ्वी पर आ चुका था। नृसिंह अवतार के रूप में भगवान का आना इस बात की पुष्टि करता है। इसके बाद भगवान विष्णु ने कभी भी अन्य जीवों के रूप में अवतार नहीं लिया बल्कि मनुष्य योनि में ही जन्म लिया। वामन अवतार, भगवान राम, कृष्ण और बुध का अवतार, मनुष्य के रूप में ही हुआ, अर्थात् इन अवतारों के समय पृथ्वी पर मनुष्यों का ही राज था और उन्होंने बाकी समस्त जीव जगत पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। वस्तुतः डार्विन ने कुछ भी नया नहीं दिया है। जैव विकास क्रम के संकेत तो भारतीय वाङ्गमय और पुराणों में पहले से ही उपलब्ध हैं।

ऋषियों को नई शोध को अपने नाम करवाने या पेटेन्ट करवाने की आवश्यकता नहीं थी। अगर पुराणों में लिखित वर्णन देखे जाएं तो जैव विकास क्रम उनमे छिपा हुआ है।

 

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