जिला ब्यूरो/ मनोज सिंह
टीकमगढ़। बीमार शरीर की नहीं, डॉक्टर के वादों पर भरोसे की भी सर्जरी हो गई… यह टीकमगढ़ के एक पीड़ित मरीज की सच्ची दास्तान है — जिसे पथरी की शिकायत पर देव सुधा सेवालय अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया गया। ऑपरेशन हुआ, दवाइयां चलीं, भरोसे की चादर ओढ़ा दी गई — लेकिन कुछ ही दिन बाद दर्द फिर से लौट आया, और भरोसा टूट गया।
इलाज के बाद फिर बढ़ा दर्द, दोबारा झांसी में कराना पड़ा ऑपरेशन
कुंवरपुरा इलाके में स्थित देव सुधा सेवालय अस्पताल में मरीज का पथरी का ऑपरेशन किया गया था। डिस्चार्ज के बाद कुछ ही समय में उसकी तबीयत फिर बिगड़ गई। हालत बिगड़ती गई तो परिजन उसे झांसी मेडिकल कॉलेज ले गए, जहां फिर से सर्जरी करनी पड़ी।
उपभोक्ता आयोग में पेश की गई मेडिकल रिपोर्ट से यह स्पष्ट हुआ कि ऑपरेशन के बावजूद पथरी शरीर में बनी रही थी, और सही इलाज नहीं हुआ था। मरीज ने आयोग के समक्ष शारीरिक, मानसिक और आर्थिक पीड़ा का हवाला देते हुए न्याय की गुहार लगाई।
आयोग की टिप्पणी: मरीज सहमति नहीं, इलाज मांगता है
देव सुधा सेवालय अस्पताल की ओर से आयोग में दलील दी गई कि ऑपरेशन से पहले मरीज की सहमति ली गई थी और संभावित जोखिम बता दिए गए थे। लेकिन आयोग ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा मरीज इलाज के लिए आता है, न कि किसी मेडिकल प्रयोग का हिस्सा बनने। सिर्फ सहमति ले लेने से अस्पताल अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाता।
तीखा सवाल: अगर ऑपरेशन सफल था, तो दोबारा क्यों हुआ?
फोरम ने अस्पताल से सीधे सवाल पूछा —
यदि ऑपरेशन सफल था, तो मरीज को दोबारा सर्जरी की आवश्यकता क्यों पड़ी?
यह सवाल ही अस्पताल की सेवा गुणवत्ता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
बीमा कंपनी भी दोषी, सेवा में कमी साबित
इस केस में इलाज का भुगतान बीमा के माध्यम से हुआ था। आयोग ने माना कि जब अस्पताल की सेवा में कमी सिद्ध हुई है, तो बीमा कंपनी भी समान रूप से उत्तरदायी है।
दोनों को मिलकर मरीज को 2 लाख रुपये हर्जाना देने का आदेश दिया गया है। साथ ही निर्देश दिया गया कि 45 दिनों में भुगतान नहीं हुआ तो 5 हज़ार अतिरिक्त भी देना होगा।
यह महत्वपूर्ण फैसला जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, टीकमगढ़ की पीठ
अध्यक्ष सनत कुमार कश्यप, सदस्य डॉ. प्रीति सिंह परमार एवं डॉ. संजीव सिंह द्वारा सुनाया गया। उपभोक्ता अधिकार की जीत, लेकिन सवाल अब भी बाकी…
यह फैसला केवल एक मरीज की जीत नहीं, बल्कि पूरे समाज को एक संदेश है –
कि चिकित्सा के नाम पर लापरवाही अब कानूनी रूप से चुनौती दी जा सकती है।
लेकिन सवाल अब भी वही है कब तक निजी अस्पताल मरीज को उपभोक्ता नहीं, ग्राहक समझते रहेंगे